देश में कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन लागू किया गया है। इस कारण लोगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार लोगों को लगातार परामर्श दे रही है कि बिना जरूरी कार्यों के वह घरों से बाहर न निकलें।

हालांकि, एक जगह ऐसी भी है जहां वर्षों से लॉकडाउन जैसे हालात हैं। भारत-बांग्लादेश सीमा पर बसे कई गांव पीढ़ियों से लॉकडाउन जैसी परिस्थितियों में रह रहे हैं। दरअसल, सीमा पर स्थित ये गांव नो मैंस लैंड पर है और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर लगी कंटीले तारों की बाड़ के दूसरी ओर।

यहां के लोगों को पहले तय समय पर ही बाड़ के जरिए आवाजाही की अनुमति थी, लेकिन अब कोविड-19 की वजह से उनके बाहर आने-जाने पर पाबंदी लगाई गई है। आपातकाल की स्थिति में ही सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के लोग इन्हें आने-जाने की अनुमति देते हैं।
दरअसल, यह देश के विभाजन के समय सीमा बंटवारे की वजह से हुआ है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की सीमा पर बस ऐसे 254 गांवों के लगभग 70 हजार लोग साल भर लॉकडाउन जैसे हालात में अपना जीवन गुजार रहे हैं।

देश के विभाजन के समय रेडक्लिफ आयोग को सीमा तय करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। लेकिन इस आयोग के प्रमुख सर रेडक्लिफ पहले न तो कभी भारत आए थे, न ही उनको यहां के बारे में कुछ पता था। ऐसे में उन्होंने जिस अजीबोगरीब तरीके से सीमाओं का बंटवारा किया, उसका खामियाजा आज तक लोगों को भरना पड़ रहा है।

खासकर पश्चिम बंगाल और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर तो सैकड़ों गांव ऐसे हैं जिनका आधा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान में चला गया और बाकी आधा भारत में रह गया। यहीं तक रहता तो भी गनीमत थी। सीमावर्ती इलाकों के गांवों में तो कई घर ऐसे हैं जिनका एक कमरा अगर भारत में है, तो दूसरा बांग्लादेश में।

10 जिलों में फैली है सीमा
भारत से लगी बांग्लादेश की 4,096 किमी. लंबी सीमा में से 2,216 किमी. अकेले बंगाल के उत्तर से दक्षिण तक फैले दस जिलों से लगी है। सीमा पर कंटीले तारों की बाड़ लगाए जाने के बाद कोई 254 गांवों के 70 हजार लोग बाड़ के दूसरी ओर ही रह गए। बाड़ में लगे गेट भी उनके लिए निश्चित समय के लिए ही खुलते हैं। ऐसे में सात दशकों से हजारों लोग लॉकडाउन जैसी हालत में जिंदगी गुजार रहे हैं।

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